दुनिया बड़ी ही मायावी है।सब मायाजाल है तो स्वाभाविक है कि लोग माया-मोह में फँसेंगे ही! अब जब माया-मोह में फँसेंगे तो काम-क्रोध से कैसे बच पायेंगे।बहरहाल यहाँ काम पर बात नहीं करूंगा।काम और कामदेव पर फिर कभी कलम घिसूंगा।पहले के जमाने में तंत्र-मंत्र में बड़ी ही मारक शक्ति हुआ करती थी लेकिन यह गूढ विद्या है,हरेक के बस में नहीं है इसका ज्ञान पा जाना।तब फिर इस क्रोध का क्या करें।कलियुग है,काल तो सिर पर सवार रहता ही है।लगता भी है कि जब कोई अपनी बात नहीं सुने तो उसे कैसे सुधारा जाए और न भी सुधरे तो उसे कैसे सबक सिखाया जाए! गुणीजन अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करने से कहाँ पीछे रहते हैं।वैसे तो तीखी जुबान से बड़ा कौन सा हथियार हो सकता है, कहते भी हैं-
"न तीर से लगता है न तलवार से
डर लगता है बस कड़वी जुबान से।"
खैर, आजकल वाक्चातुर्य इतना हो चला है कि जुबानी जंग भी बतकहियों का ही अंग लगती है तब प्रश्न यही आ उपस्थित होता है कि अपनी बात को कैसे मनवाया जाए!प्राचीन आर्यावर्त में तो आर्य पुरूष अस्त्र-शस्त्र में निपुण थे।उन्होंने आध्यात्म ज्ञान के साथ साथ आततायियों और दुष्टों के दमन के लिए अस्त्र-शस्त्रों की भी सृष्टि की थी।उनकी यह विद्या या शक्ति धर्म स्थापना में सहायक होती थी। बताया गया है कि तब अस्त्र ऐसे होते थे जिन्हें मन्त्रों के द्वारा दूरी से फैंका जा सकता था, ये अग्नि ,गैस, विद्युत या यांत्रिक प्रभाव से चलाये जाते थे।दूसरी ओर शस्त्र खतरनाक हथियार होते थे जिनके प्रहार से सीधे मृत्यु ही कारित होती थी।लेकिन अब वह जमाना नहीं रहा।सीमा रक्षक या कानून रक्षक की बात छोड़ दें तो एक दुविधापूर्ण स्थिति बनती है कि आर्यावर्त के वे लोग अब क्या करें जिन्हें सीधे सीधे लग रहा है कि उनकी बात नहीं सुनी जा रही है और उनकी अपनी बुद्धि कहती है कि अन्याय हो रहा है!अब धर्म -अधर्म या सत्य-असत्य की बात मैं तो क्या कोई भी समझदार व्यक्ति नहीं करेगा क्योंकि ये बातें बन्द किताबों में ही शोभायमान हो तो अच्छा है।
यहाँ बात अपनी और सिर्फ अपनी लड़ाई की है।महिलाओं ने तो इसके लिए पहले से ही अपने अस्त्र-शस्त्र निर्धारित कर लिये हैं,कभी फैंककर तो कभी चलाकर उपयोग करने वाले कारगर हथियार, मोगरी, बेलन से लेकर चप्पल-सेंडिल तक, तो दूसरी ओर पुरूष वर्ग भी कहाँ पीछे रहने वाला,अब वह मंत्र शक्ति के बल पर हथियार चलाने का ज्ञान हांसिल करने के लिए अपना टाइम खोटी खराब तो नहीं करेगा न!इसके लिए तो ड़ंडा उर्फ लठ्ठ ही काफी है।नये-नये प्रयोग में हॉकी स्टिक का बहुतायत से उपयोग कर चुके, अब वह आनन्द नहीं!यहाँ तक कि जुते चलाने में भी महारत हांसिल कर चुके हैं।अब नया प्रयोग जो सामने आया है,वह है क्रिकेट का बेट उर्फ बल्ला।अतुलनीय प्रयोग! ये सब अहिंसक प्रयोग करार दिये जाने चाहिए क्योंकि इसमें किसी की जान लेने की मंशा नहीं है और ये बिगड़े नवाबों को सुधारने की दिशा में उठाए गए कदम कहे जा रहे हैं। हाँ,इनका उपयोग कौन कर रहा है, उनके बारे में कोई आकाशवाणी नहीं, अभी तो केवल नो कमेंट्स!वैसे हिंसक प्रयोग के लिए तो चाकू -छुरी,बन्दूक-शन्दुक हैं ही!
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