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April 18, 2024 5:57 pm

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शौर्य व वीरता की अद्भुत मीसाल है लावा ठिकाना,इसी के विलय से हुआ था राजस्थान का निर्माण

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राजस्थान दिवस के 75 वर्ष पूर्ण करने पर पढ़ीए,आजीवन विजयी रहे लावा का इतिहास

रिपोर्ट-बनवारी चंदवाड़ा

जयपुर। सोने री धरती अर चांदी रो आसमान ओ है म्हारो प्यारो रंग रंगीलों राजस्थान, उत्तरी पश्चिमी भारत में बसे रंगी रंगीले राजस्थान जहां की मिट्टी का कण- कण शौर्य, वीरता व मातृभूमि की रक्षा का परिचायक है। ये उन शूरवीरों की भूमि है जहां महाराणा प्रताप, राणा सांगा, महाराणा कुम्भा व मालदेव जैसे शासकों ने मुगलों को दातों चने चबाने को मजबूर कर दिया था जिनकी वीरता के किस्से आज भी राजस्थान के कोने- कोने में गाए जाते है। इसी प्रकार वीरता की कहानी बयां करता है राजस्थान की राजधानी जयपुर से करीब 80 किमी. दूर टोंक जिले की मालपुरा तहसील में बसा लावा ठिकाना,जो एकिकरण से पूर्व राजपूताना जयपुर रेजीडेंसी के तहत एक ठिकाना हुआ करता था। नरुका राजपूतों द्वारा शासित यह ठिकाना एक छोटा शहर है जिसके आसपास डिग्गी,मालपुरा,टोडारायसिंह व बिसलपुर जैसे एतिहासिक क्षैत्र स्थित है।

एकीकरण के चौथे चरण में लावा विलय से हुआ था राजस्थान का निर्माण

आजादी के समय 1947 में राजस्थान 19 रियासतें व 3 ठिकाने ( नीमराना, कुशलगढ़ व लावा ) को समेटे हुए था जो आगे चलकर सात चरणों मे बने वर्तमान राजस्थान की गवाही देता है। ये सात चरण 8 वर्ष 7 माह व 14 दिन की कड़ी मशक्कत के बाद पूरे हुए। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण
एकीकरण की प्रक्रिया का चौथा चरण था जिसमें 14 जनवरी 1949 को उदयपुर में सरदार वल्लभभाई पटेल ने जयपुर, बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर व लावा रियासतों को वृहद राजस्थान में सैद्धांतिक रूप से सम्मिलित होने की घोषणा की। इस निर्णय को मूर्त रूप देने के लिए 30 मार्च 1949 को जयपुर में आयोजित एक समारोह में वृहत राजस्थान का उद्घाटन सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। इसकी राजधानी जयपुर तथा उदयपुर के महाराणा भूपालसिंह को महाराज प्रमुख, जयपुर के महाराजा मानसिंह को राजप्रमुख तथा कोटा के महाराव भीमसिंह को उपराज प्रमुख बनाया गया। इसी के साथ 30 मार्च को राजस्थान की चार सबसे बड़ी रियासतों जयपुर,जैसलमेर,बीकानेर,जोधपुर व लावा के विलय पर वृहत राजस्थान के अस्तित्व में आने के बाद सैद्धांतिक रूप से इस दिन को राजस्थान दिवस घोषित किया गया और इसी दिन से प्रत्येक वर्ष 30 मार्च को राजस्थान दिवस मनाया जाता है।

एकीकरण के चौथे चरण में ही राजस्थान में 5 विभाग स्थापित किये गए जिसमें शिक्षा विभाग- बीकानेर,
न्याय विभाग – जोधपुर, वन विभाग कोटा,कृषि विभाग – भरतपुर व खनिज विभाग- उदयपुर में स्थित है।
इस दौरान जयपुर व जोधपुर में राजधानी बनाने को लेकर विवाद हो गया इसके समाधान हेतु सरदार वल्लभ भाई पटेल ने पी. सत्यनारायण राव समिति गठित की जिसके सदस्य बी. आर. पटेल, कर्नल टी. सी. पूरी व एस. पी. सिन्हा ने जयपुर को राजधानी बनाने की सिफारिश की जो अभी तक जारी है।

आजीवन विजयी रहा लावा ठिकाना

लावा ठिकाने के अंतिम ठीकानेदार बंशप्रदीप सिंह के वंशज चंद्रवीर सिंह ने बताया कि 19 वर्गमील क्षेत्रफल के लावा ठिकाने की जनसंख्या सन् 1901 में मात्र 2671 थी। सन् 1800 में जब जयपुर और मराठा सेना के बीच ‘ मालपुरा का युद्ध ‘ हुआ तब लावा दुर्ग बड़े काम का साबित हुआ। सन् 1817 में अंग्रेजों की मदद से टोंक में एक सैन्य सरदार अमीर खां के शासन का आगाज हुआ व टोंक रियासत में लावा को भी शामिल कर लिया गया। इससे पहले लावा जयपुर रियासत का एक महत्वपूर्ण ठिकाना था। नवाब अमीर खां के पुत्र नवाब वजीरोद्दोला सन् 1834 में टोंक की गद्दी पर बैठे। उन्होंने लावा पर हमला करने सेना भेजी। टोंक और लावा की ताकत में एक बड़ा अंतर‌ था लेकिन लावा वाले इतनी वीरता से लड़े कि टोंक की सेना लावा को जीत नहीं सकी।

नरूका ने बताया कि एक बार टोंक की सेना ने गफलत में बगड़ी गांव‌ के गढ़ को लावा दुर्ग समझ तोपों से ढ़हा दिया था। संघर्षों के इस दौर में विराम भी आया। नवाब वजीरोद्दौला ने यह मुनासिब समझा कि लावा से जंग की बजाय अपना ध्यान रियासत की बेहतरी में लगाया जाए। हालांकि लावा को घेरने के लिए चौकी-पहरा का सिलसिला जारी रहा। लावा भी हरेक मुश्किल में अपनी आन-बान-शान के साथ खड़ा रहा।

सन् 1867 से लावा स्वंतत्र ठिकाना रहा। जिसे पूर्ण राजस्व अधिकार और फौजदारी मामलों में प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट की न्यायिक शक्तियां दी गयीं। दीवानी मामले में एक हजार रुपये तक के वाद सुनने का अधिकार दिया गया। इसकी अपीलें जयपुर में अंग्रेज रेजीडेन्ट सुनता था। 1929 में महाराज बंशप्रदीप सिंह लावा के शासक बने। लावा ठाकुर बंशप्रदीप सिंह उच्च व्यक्तित्व के धनी थे। इसी परम्परा में अश्विनी कुमार सिंह ‘ लावा ‘ को सन् 2006 में विश्व-प्रसिद्ध जयगढ़ किले का प्रशासक ( प्रबंधन ) बनाया गया।

लावा पहले जयपुर राज्य का हिस्सा था लावा ठिकाने के संस्थापक नाहर सिंह नरूका सन् 1722 में लदाना वर्तमान में फागी जयपुर के पास स्थित से आकर लावा ठिकाने कि स्थापना कि, 1772 में लावा एक जागीर बन गया जो पिंडारी नेता अमीर खान के माध्यम से मराठों के नियंत्रण में आ गया , जो बाद में टोंक का नवाब बन गया तथा इसी दौरान लावा पर तीन बार पिण्डारियों ने अलग- अलग समय पर युद्ध किया जिसमे हर बार पिण्डारियों को हार का सामना करना पड़ा।

लावा ठिकाने के वर्तमान दरबार प्रद्युमन सिंह नरूका ने बताया कि नरूका वंश की वीरता का अंदाज़ इससे लगाया जा सकता है कि एक बार अमीर खॉ पिंडारी ने समझौता करने हेतु टोंक बुलाया लेकिन पिंडारी ने धोखे से 17 में से 16 लोगों को मौत के घाट उतार दिया लेकिन विजय सिंह नामक व्यक्ति का सिर कटने के बाद भी उनका धड़ घोड़े पर बैठकर लावा पहूंच गया और वीरगति को प्राप्त हुए।

लावा उन ठिकानों में से एक था जो भारत की स्वतंत्रता के समय मौजूद थे यह क्षेत्रफल के साथ-साथ जनसंख्या के हिसाब से सबसे छोटा था और पूरी तरह से ग्रामीण बस्ती थी। यह उन वीर योद्धाओं के गौरवशाली इतिहास के बारे में थी जो कभी पराजित नहीं हुए। चंद्रवीर सिंह नरूका ने बताया कि इस राजपूत साम्राज्य पर भगवान शिव की विशेष कृपा है। लावा का ऐतिहासिक मंदिर जंगजीतेश्वर महादेव आज भी मौजूद है। लावा ठिकाना में वीर योद्धाओं का इतिहास है जो कभी पराजित नहीं हुए। यद्यपि लावा ने असंख्य इस्लामी आक्रमणों को कायम रखा, लेकिन दुश्मन द्वारा भूमि पर कभी कब्जा नहीं किया गया था, इसलिए इस क्षेत्र की कला, वास्तुकला, संस्कृति में ऐसा कोई इस्लामी या विदेशी प्रभाव नहीं देखा गया है। राजपूत विरासत के इस विशाल विसर्जन में नागरिक, सैन्य और पवित्र फैलाव है। नागरिक क्षेत्र ने तीन, ‘प्रशासनिक ब्लॉक’, ‘आम रहने वाले क्वार्टर’ और महिला वर्ग को बनाए रखा जो मुगल काल से जनाना महल के नाम से जाना जाता था । प्रशासनिक ब्लॉक में अदालतों को दरीखाना कहा जाता था, जो सभी प्रमुख निर्णयों के लिए बैठक स्थल है। 16 वीं शताब्दी के बाद से लावा के प्रत्येक शासक ने पुरुषों के लिए बरला महल (महल के बाहर) में और अधिक इमारतों को जोड़ा, समय के साथ होने वाली तबाही ने भले ही कुछ बाहरी विशेषताओं को बदल दिया हो, लेकिन बाकी सब कुछ वैसा ही है। गोला-बारूद और अन्य युद्ध सामग्री को एक सुरक्षित संरचना में रखा गया था जिसे एस इलेहखाना कहा जाता है । यद्यपि मुख्य किलेबंद प्राचीर अभी भी हैं, चारों कोनों पर बुर्ज स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, लावा में शासकों और योद्धाओं की छत्रियां (शाही स्मारक)आज भी मौजूद हैं जो युद्धों में मारे गए थे।

कछवाहा राजवंश के वंशज है लावा को ठीकानेदार

चंद्रवीर सिंह ने बताया कि आमेर के तीसरे राजा उदयकरण (1367) का दूसरा सबसे बड़ा पुत्र नर सिंह था। बार सिंह, जिन्हें सबसे बड़ा पुत्र कहा जाता है, ने अपने भाई नर सिंह के पक्ष में उत्तराधिकार का अधिकार छोड़ दिया। बार सिंह ने जयपुर के दक्षिण-पश्चिम में कुछ मील की दूरी पर, झाग और मौजमाबाद कस्बों की संपत्ति प्राप्त की। उनके पोते नरुका वंश के संस्थापक संस्थापक नारू थे।
ठाकुर नाहर सिंह को वर्ष 1722 में जयपुर के शासक द्वारा लावा की संपत्ति प्रदान की गई थी। जब भी लावा ठिकाना को लेकर चर्चा होती है तो लावा और लदाना का नाम अक्सर एक साथ लिया जाता है। लावा रासो नाम की पुस्तक ढूंढाडी़ भाषा में लिखी गई थी जो लावा और लदाना के बारे विस्तृत चर्चा करती है इसमें भरत सिंह नरुका का प्रसिद्ध वर्णन है जिन्होंने पिंडारी नेता अमीर खान पिंडारी को चतुराई से हराया था। गौरतलब है कि वर्तमान में लावा ठिकाने की नवीं पीढ़ी गढ में निवास कर रही है जिसकी दरबार गद्दी पर बंस प्रदीप सिंह के पौत्र प्रद्युमन सिंह पदस्थापित है।

 

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